दो टूक
जून 12, 2012 § टिप्पणी करे
वास्तव में ये कविता “देव का गौरवाभिषेक” का ही हिस्सा थी परन्तु दोनों ही कविताओं के स्वाभाव में ज़मीं आसमान का फर्क था नतीजतन दोनों को अलग रूप देना पड़ा. कविता का लहजा आवेशात्मक और आदेशात्मक है. संवाद हिन्दू धर्म और उसके विरोधियों के मध्य है.
अब मैं जो कहने जा रहा हूँ,
सभी ध्यान से उसे सुन लें,
बातें दोहराने की आदत, मुझमे नहीं कुछ खास है,
मेरे पुत्रों की शक्ति का क्या तुम्हे अंदाज़ है,
है अग्नि कितनी पवित्र, इसका तुम्हे आभास है,
ये मेरी ही कृपा है की तुम्हे सद्बुद्धि है,
मैं जो हूँ अग्नि तो तुम तक भी मेरी आंच है,
वेदना मेरी सहने की क्षमता है अपरिमित, बिना व्यास है,
देते हैं हम प्रियों को मुखाग्नि, ये नहीं हास परिहास है,
मैं सत्य खड़ा हूँ सामने, तुम कहते हो मुझमें नहीं कुछ ख़ास है!
सत्य है मृतप्राय तड़पता हूँ यहाँ,
पर आँखों में मेरी कल की सुनहरी आस है,
चाहे पुकारो जिस नाम से मुझको,
चाहे उड़ा लो तुम हँसी,
पर नाम मेरा हिन्दू है और दूजा नाम विश्वास है.
-कुशाग्र
२२-अक्तूबर-२००३
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