मनःस्थिति (क्षमा याचना)

जून 7, 2012 § टिप्पणी करे

यह कविता शायद हर पाठक ना समझ सकें पर हर व्यक्ति के जीवन में ऐसा वक़्त आता है जब उसे अपने ही संस्कारों से चिढ होने लगती है. ह्रदय विद्रोह करने लगता है और अक्सर मनुष्य यहीं डगमगा जाता है. इस अवस्था का उत्तर कविता का अंतिम भाग देता है. सत्य हमेशा ह्रदय को हल्का कर देता है. शेष पाठकों पर.

इक अनजाना सा गुस्सा मुझे घेर लेता है,

अपनों पर निकलता है, बाहर वालों से डरता है,

चिडचिडा है ये, खुद को जाने क्या समझता है,

बस हर बात से चिढ़ता है, थका हुआ सा मुझको रखता है,

गुस्सा है ये या असंतोष, मुझको त्रस्त ये रखता है,

 

है असंतोष ये मेरा, मेरे अन्दर का विकार,

इक अपूर्णता का एहसास,

सम्पूर्ण होने की चाहत मुझे कचोटती है,

बेचैन ये रखती है मुझे,

लक्ष्य से भ्रमित रखती है,

 

कर्तव्यों से परे हटा, इक ऐसा लोक दिखाती है,

जहाँ मैं हूँ और मेरी सजीव कल्पनाएँ,

नृत्य करती हैं, मिथ्यापूर्ण,

चकित, विस्मित और प्रफुल्लित,

रहता हूँ मैं उस लोक में,

क्यूँ रहता हूँ?

बचने को उस अनजाने से गुस्से से,

जो है मेरा ही प्रकार.

 

-कुशाग्र

 

 

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