औरतें बेहद अजीब होतीं है

जुलाई 24, 2016 § टिप्पणी करे

Another beautiful forward from Whatsapp. Although attributed to Gulzar but I cannot confirm that so my regards to the poet.

लोग सच कहते हैं –
औरतें बेहद अजीब होतीं है

रात भर पूरा सोती नहीं
थोड़ा थोड़ा जागती रहतीं है
नींद की स्याही में
उंगलियां डुबो कर
दिन की बही लिखतीं
टटोलती रहतीं है
दरवाजों की कुंडियाॅ
बच्चों की चादर
पति का मन..
और जब जागती हैं सुबह
तो पूरा नहीं जागती
नींद में ही भागतीं है

सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं

हवा की तरह घूमतीं, कभी घर में, कभी बाहर…
टिफिन में रोज़ नयी रखतीं कविताएँ
गमलों में रोज बो देती आशाऐं

पुराने अजीब से गाने गुनगुनातीं
और चल देतीं फिर
एक नये दिन के मुकाबिल
पहन कर फिर वही सीमायें
खुद से दूर हो कर भी
सब के करीब होतीं हैं

औरतें सच में, बेहद अजीब होतीं हैं

कभी कोई ख्वाब पूरा नहीं देखतीं
बीच में ही छोड़ कर देखने लगतीं हैं
चुल्हे पे चढ़ा दूध…

कभी कोई काम पूरा नहीं करतीं
बीच में ही छोड़ कर ढूँढने लगतीं हैं
बच्चों के मोजे, पेन्सिल, किताब
बचपन में खोई गुडिया,
जवानी में खोए पलाश,

मायके में छूट गयी स्टापू की गोटी,
छिपन-छिपाई के ठिकाने
वो छोटी बहन छिप के कहीं रोती…

सहेलियों से लिए-दिये..
या चुकाए गए हिसाब
बच्चों के मोजे, पेन्सिल किताब

खोलती बंद करती खिड़कियाँ
क्या कर रही हो?
सो गयी क्या ?
खाती रहती झिङकियाँ

न शौक से जीती है ,
न ठीक से मरती है
कोई काम ढ़ंग से नहीं करती है

सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं ।

कितनी बार देखी है…
मेकअप लगाये,
चेहरे के नील छिपाए
वो कांस्टेबल लडकी,
वो ब्यूटीशियन,
वो भाभी, वो दीदी…

चप्पल के टूटे स्ट्रैप को
साड़ी के फाल से छिपाती
वो अनुशासन प्रिय टीचर
और कभी दिख ही जाती है
कॉरीडोर में, जल्दी जल्दी चलती,
नाखूनों से सूखा आटा झाडते,

सुबह जल्दी में नहाई
अस्पताल मे आई वो लेडी डॉक्टर
दिन अक्सर गुजरता है शहादत में
रात फिर से सलीब होती है…

सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं

सूखे मौसम में बारिशों को
याद कर के रोतीं हैं
उम्र भर हथेलियों में
तितलियां संजोतीं हैं

और जब एक दिन
बूंदें सचमुच बरस जातीं हैं
हवाएँ सचमुच गुनगुनाती हैं
फिजाएं सचमुच खिलखिलातीं हैं

तो ये सूखे कपड़ों, अचार, पापड़
बच्चों और सारी दुनिया को
भीगने से बचाने को दौड़ जातीं हैं…

सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं ।

खुशी के एक आश्वासन पर
पूरा पूरा जीवन काट देतीं है
अनगिनत खाईयों को
अनगिनत पुलो से पाट देतीं है.

सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं ।

ऐसा कोई करता है क्या?
रस्मों के पहाड़ों, जंगलों में
नदी की तरह बहती…
कोंपल की तरह फूटती…

जिन्दगी की आँख से
दिन रात इस तरह
और कोई झरता है क्या?
ऐसा कोई करता है क्या?

सच मे, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं

ओक्का बोक्का तीन तलोक्का…

जून 16, 2016 § टिप्पणी करे

I am sure that this is not the actual poem but it is very touching nonetheless so I am publishing it to preserve it. It is not mine and was received as a forward on Whatsapp so my regards to the actual poet.

ओक्का बोक्का तीन तलोक्का, फूट गयल बुढ़ऊ क हुक्का,
फगुआ कजरी कहाँ हेरायल, अब त गांव क गांव चुड़ूक्का
नया जमाना नयके लोग, नया नया कुल फईलल रोग
एक्के बात समझ में आवै, जइसन करनी वइसन भोग
नई नई कुल फइलल पूजा, नया नया कुल देबी देवता
एक्कै घर में पांच ठो चूल्हा, एक्कै घरे में पांच ठो नेवता
नउआ कउआ बार बनउवा, कवनो घरे न फरसा झऊआ
लगे पितरपख होय खोजाई, खोजले मिलें न कुक्कुर कउआ
एहर पक्का ओहर पक्का, जेहर देखा ओहर पक्का
गांव क माटी महक हेराइल, अंकल कहा कहा मत कक्का
कहाँ गयल कुल बंजर ऊसर, लगत बा जइसे गांव ई दूसर
जब से ई धनकुट्टि आइल, कउनो घरे न ओखरी मूसर
कहाँ बैल क घुंघरू घण्टी, कहाँ बा पुरवट अऊर इनारा
कहां गइल पनघट क गोरी, सूना सूना पनघट सारा
शहर गांव के घीव खियावै, दाल शहर से गांव में आवै
शहरन में महके बिरियानी, कलुआ खाली धान ओसावै
गांव गली में अब त खाली, राजनीती पर होले चर्चा
अब ऊ होरहा कहाँ भुजाला, कहाँ पिसाला नीमक मरचा
कबो कबो सोंचीला भाई, अब ऊ दिन ना लौट के आई
अब ना वइसे कोयल बोलिहैं, वइसे ना महकी अमराई।।

दर्द जब हद से गुज़र गया…

नवम्बर 6, 2012 § टिप्पणी करे

दर्द जब हद से गुज़र गया तो ग़ज़ल बन गया,
तेरे एक ना होने से सारा मजमा फीका पड़ गया,
तेरी तस्वीर सुकुन देती थी वो आज तेरी कमी का पैय्माना बन गयी,
तेरे हाँथों को छूने की रोजाना की ख्वाहिश आज अपनी जिद्द पर अड़ गयी,
जो चंद लम्हे तुम्हे मुस्कुराते देखा था वो अब कसक बन गये,
तेरी उंगली पे सजे पत्थर की चमक आज आँखों में बस गयी,
वो खनकती हंसी तुम्हारी आज तन्हाई बन गयी,
चाय के प्यालों में घुले हुए सपने आज मीठी प्यास बन गये,
आज कलम ने जिद्द करली ग़ज़ल को पाने की तो दर्द की स्याही बन गयी,
कलम को ग़ज़ल मिली और दर्द स्याही बन बह गया,
पर तुम वहीँ रह गयी और  मैं यहीं रह गया,
दर्द जब हद से गुज़र गया तो ग़ज़ल बन गया।

कुशाग्र

You, Me or Us?

जुलाई 27, 2012 § टिप्पणी करे

This is Our life… 🙂

 

I was wondering that is it you or me?
As you said one day who starts it,
With the same question I had now, that is it you or me?
Then I thought, do I care for you?
And answer came yes I do..
Then I thought ,do you care for me?
And answer came yes you do..
Then I thought, do I love you?
And answer came yes I do..
Then I thought, do you love me?
And answer came yes you do?

Aah, silly couple, my heart said; its not you nor me
Its “us”…. And when

You miss me,
I miss you,
So both of “us” miss being “us”..

 

-Just usual

When You Thought I wasn’t looking…

जून 15, 2012 § टिप्पणी करे

This is not my poem and I read it on the blog of Mr. Paulo Coelho . It is a very beautiful poem and I felt like sharing it. Read it and appreciate the writer. Beautiful poem.

When you thought I wasn’t looking
You hung my first painting on the refrigerator
And I wanted to paint another.

When you thought I wasn’t looking
You fed a stray cat
And I thought it was good to be kind to animals.

When you thought I wasn’t looking
You baked a birthday cake just for me
And I knew that little things were special things.

When you thought I wasn’t looking
You said a prayer
And I believed there was a God that I could always talk to.

When you thought I wasn’t looking
You kissed me good-night
And I felt loved.

When you thought I wasn’t looking
I saw tears come from your eyes
And I learned that sometimes things hurt—
But that it’s alright to cry.

When you thought I wasn’t looking
You smiled
And it made me want to look that pretty too.

When you thought I wasn’t looking
You cared
And I wanted to be everything I could be.

When you thought I wasn’t looking—
I looked . . .
And wanted to say thanks
For all those things you did
When you thought I wasn’t looking.

by Mary Rita Schilke Korzan

दो टूक

जून 12, 2012 § टिप्पणी करे

वास्तव में ये कविता “देव का गौरवाभिषेक” का ही हिस्सा थी परन्तु दोनों ही कविताओं के स्वाभाव में ज़मीं आसमान का फर्क था नतीजतन दोनों को अलग रूप देना पड़ा. कविता का लहजा आवेशात्मक और आदेशात्मक है. संवाद हिन्दू धर्म और उसके विरोधियों के मध्य है.

अब मैं जो कहने जा रहा हूँ,

सभी ध्यान से उसे सुन लें,

बातें दोहराने की आदत, मुझमे नहीं कुछ खास है,

मेरे पुत्रों की शक्ति का क्या तुम्हे अंदाज़ है,

है अग्नि कितनी पवित्र, इसका तुम्हे आभास है,

ये मेरी ही कृपा है की तुम्हे सद्बुद्धि है,

मैं जो हूँ अग्नि तो तुम तक भी मेरी आंच है,

वेदना मेरी सहने की क्षमता है अपरिमित, बिना व्यास है,

देते हैं हम प्रियों को मुखाग्नि, ये नहीं हास परिहास है,

मैं सत्य खड़ा हूँ सामने, तुम कहते हो मुझमें नहीं कुछ ख़ास है!

सत्य है मृतप्राय तड़पता हूँ यहाँ,

पर आँखों में मेरी कल की सुनहरी आस है,

चाहे पुकारो जिस नाम से मुझको,

चाहे उड़ा लो तुम हँसी,

पर नाम मेरा हिन्दू है और दूजा नाम विश्वास है.

-कुशाग्र

२२-अक्तूबर-२००३

देव का गौरवाभिषेक

जून 12, 2012 § टिप्पणी करे

हिन्दू धर्म या सनातन धर्म निसंदेह इस विश्व के सबसे पुरातन धर्मों में से एक है. सिर्फ पुरातन ही नहीं वरन जीवित भी. परन्तु आज इस धर्म को भी अपनी महत्ता साबित करनी पड़ रही है. प्रस्तुत कविता में हिन्दू धर्म स्वयं अपने विचार प्रस्तुत कर रहा है. यहाँ आत्मप्रशंसा नहीं वरन सत्यगाथा कही गयी है. लहजा मृदु और सहयोगात्मक है.

मैं जो खड़ा हूँ यहाँ, शोषित और उपेक्षित,

मैं जो खड़ा हूँ यहाँ, ठगा हुआ सा विस्मित,

मैं जो खड़ा हूँ यहाँ, ठहरा हुआ सा बासी,

मैं जो खड़ा हूँ यहाँ, पुरातन और दरिद्र,

तो ये ना सोचो की मैं हमेशा यूँ ही खड़ा रहूंगा,

मैं तो रहा हूँ सदैव, सम्मानित, अभिमानित,

मैं तो रहा हूँ सदैव, पूजनीय, प्रशंसनीय,

मैं तो रहा हूँ सदैव, देवतुल्य, पितृसमान,

मैं तो रहा हूँ सदैव, जीवन की पद्धति समान,

तो ये जान लो की मैं हमेशा ऐसा ही रहूंगा,

मैं जो गुज़र रहा हूँ, बदलाव की बहार से,

मैं जो गुज़र रहा हूँ, परिवर्तन की राह से,

मैं जो गुज़र रहा हूँ, आक्रमण के दौर से,

मैं जो गुज़र रहा हूँ, संक्रमण के काल से,

तो विरोधी जान लें की मैं फिर से जन्म लूँगा,

मैं तो हूँ वो शक्ति, जो जीवन जीने का सलीका है,

मैं तो हूँ वो भक्ति, जो जीवन जीने का तरीका है,

मैं तो हूँ वो मुक्ति, जो जीवन जीने का है उद्देश्य,

मैं तो हूँ वो अभिव्यक्ति, जो है ज्ञान का परम सन्देश,

मैं तो हूँ वो धर्म, जहाँ है सत्य का रमणीक प्रदेश,

तो दुनिया जान ले की मैं फिर से प्रकट हूँगा,

मैं तो हूँ हिन्दू और प्रलयकाल तक रहूँगा.

कुशाग्र

२२-अक्तूबर-२००३

इंडियन और हिन्दुस्तानी

जून 11, 2012 § टिप्पणी करे

स्व. श्री रामधारी सिंह “दिनकर” जी की कालजयी रचना “रात यूँ कहने लगा मुझसे गगन का चाँद” मुझे हमेशा ही बहुत पसंद थी और मेरी ये रचना उन्ही की रचना पर आधारित है. पाश्चात्य संस्कृति की अंधी नक़ल में शामिल भारतियों पर ये कटाक्ष है.मुझे अमेरिका से ना कोई लगाव है ना विरोध. उसे सिर्फ एक सभ्यता के चिन्ह के रूप में लिया गया है. प्रतिभा पलायन पर एक दूसरा नजरिया भी प्रस्तुत किया गया है. इस कविता में संवाद चाँद, मुझमें और इंसानियत के बीच होता है. यह एक हलकी फुल्की रचना है. जिन पाठकों ने वो कविता न पढ़ी हो वो दिनकर जी की कविता ज़रूर पढ़ें.

 

रात यूँ कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,

इंडियन भी क्या अनोखा जीव होता है,

गन्दगी अपनी फैलाकर आप ही फंसता है,

फिर बेचैन हो देश को गाली देता है,

जानता है तू की ये देश कितना पुराना है,

देख चुका है अवतारों, सभ्यताओं को जन्मते मरते,

और लाखों बार इन जैसे निकम्मों को,

डिस्को में बेठे, अमेरिका पर सही करते,

इंडियन का ड्रीम? वह है अमेरिका,

जो आज उठता है और इराक पर फूट जाता है,

किन्तु फिर भी धन्य ठहरा आदमी ही तो,

अमेरिका में जीता, खुदको स्मार्ट बनाता है,

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क्यूँ?

जून 8, 2012 § टिप्पणी करे

छायावाद में लिखी ये कविता भारत की वर्तमान स्थिति को दर्शाती है. धार्मिक वैमनस्यता भारत की परम शत्रु है और यही कविता का विषय है. कविता का शीर्षक उस सवाल की तरफ इशारा है जो कविता के अंत में उपजता है की आखिर भारत के साथ ऐसा क्यूँ हो रहा है और क्या इसका कोई सूझबूझ भरा उपाय है.

कभी एक बरगद होता था एक छोटे से गाँव में,

रहती थें वहां सैकड़ों चिड़ियाँ उस बरगद की छाँव में,

जाने कब से खड़ा था बरगद उस छोटे से गाँव में,

लोग पूजते थे उसको, वो था सबसे ही महान,

बांधे खडा था गाँव की मिटटी, उसके तन और उसके प्राण,

ऊपर से वो हरा भरा था,

पर अन्दर तो कुछ और था,

उसके पक्षियों में तो क्रोध, वैमनस्य और विरोध था,

रहते गर वो समझबूझ कर ना आता वो दिन कभी,

जब बिछड़ी एक डाली हमसे कहकर, हम तुम में से नहीं,

कोई कैसे भला उस डाली को बात भली समझाये,

गाँव बहुत बुरा है ये, ये बात उन्हे कौन बतलाये,

ये तो थी उस डाली की कहानी,

जो सूखे बिना पाये पानी, « Read the rest of this entry »

मनःस्थिति (क्षमा याचना)

जून 7, 2012 § टिप्पणी करे

यह कविता शायद हर पाठक ना समझ सकें पर हर व्यक्ति के जीवन में ऐसा वक़्त आता है जब उसे अपने ही संस्कारों से चिढ होने लगती है. ह्रदय विद्रोह करने लगता है और अक्सर मनुष्य यहीं डगमगा जाता है. इस अवस्था का उत्तर कविता का अंतिम भाग देता है. सत्य हमेशा ह्रदय को हल्का कर देता है. शेष पाठकों पर.

इक अनजाना सा गुस्सा मुझे घेर लेता है,

अपनों पर निकलता है, बाहर वालों से डरता है,

चिडचिडा है ये, खुद को जाने क्या समझता है,

बस हर बात से चिढ़ता है, थका हुआ सा मुझको रखता है,

गुस्सा है ये या असंतोष, मुझको त्रस्त ये रखता है,

 

है असंतोष ये मेरा, मेरे अन्दर का विकार,

इक अपूर्णता का एहसास,

सम्पूर्ण होने की चाहत मुझे कचोटती है,

बेचैन ये रखती है मुझे,

लक्ष्य से भ्रमित रखती है,

 

कर्तव्यों से परे हटा, इक ऐसा लोक दिखाती है,

जहाँ मैं हूँ और मेरी सजीव कल्पनाएँ,

नृत्य करती हैं, मिथ्यापूर्ण,

चकित, विस्मित और प्रफुल्लित,

रहता हूँ मैं उस लोक में,

क्यूँ रहता हूँ?

बचने को उस अनजाने से गुस्से से,

जो है मेरा ही प्रकार.

 

-कुशाग्र

 

 

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